रविवार, 20 दिसंबर 2009

पता नहीं हम कब सुधरेंगे !

पता नहीं ये लिखना ठीक होगा या नहीं, मुझे नहीं मालूमफिर भी इसे नजरंदाज करने का मन नहीं कर रहा हैइस कारण से लिख रहा हूँयह अपनी पोल खोलने जैसी बात होगीचलिए सीधे मुद्दे पर आते हैंमैं और मेरी तरहमेरे तमाम साथियों ने अभी हाल में ही पत्रकारिता कि दहलीज के अन्दर कदम रखा हैहमने बाकायदा इसकीशिक्षा ली और इसके हर पहलु को जाना हैहाँ, लेकिन जो व्यावहारिक ज्ञान है वो इस दहलीज के अन्दर ही मिलरही है
हमें पढाई के दौरान सिखाया गया कि पक्षपातरहित होकर खबर लिखनी हैलेकिन ऐसा हो नहीं पता हैकहीं भी कोई रिपोर्ट लेने जाओ तों आदमी कुछ कुछ पकड़ा देता हैउसकी रिपोर्ट लिखते समय वह चीज यादरहती हैऐसे में कैसे वो रिपोर्ट पक्षपातरहित हो सकती हैमेरी समझ में नहीं आता। ऐसा किसी प्रेस कान्फेरेंसऔर कार्निवल में अक्सर होता है कि हमें वहां जाने पर कुछ कुछ मिल ही जाता हैलाख मना कीजिये लोग नहींमानते हैकोई मां होने की दुहाई देता है तों कोई बड़ा भाई होने काइन स्थितियों से कैसे बचा जाये मुझे नहींमालूमफिर भी कुछ स्थितियों को टला जा सकता हैदूसरी ओरएक दंभ कि नींव भी अन्दर पड़ चुकी है कि हमतों पत्रकार हैंहमारा हर काम फ्री और बिना कुछ किए ही होना चाहिएजैसे टिकट कि लाइन लगना पड़ेयाफिल्म देखने का पैसा देना पड़ेइतना ही नहीं अपने तों देखें ही दूसरों को भी दिखाएइसे छुपाने के लिए दूसरोंसे झूठ भी बोले। सब पढने के बाद भी हम ऐसा कैसे हो जाते हैं कि जो सिखा और समझा उसके उलट चलें। दूसरों की कमियों के पीछे पड़ रहते हैं, पर पता नहीं हम कब सुधरेंगे और पता नहीं शायद इन स्थितियों से खुद ही बच सकते हैं। या शायद बचना ही नहीं चाहते।

2 टिप्‍पणियां:

अजय कुमार ने कहा…

बहुत सही लिखा है आपने , लेकिन ये चीजें आपके राह का रोड़ा न बनें , उम्मीद करता हूं

shama ने कहा…

Bade sachhe manse likhi huee post hai!