गुजरों ने अपने को अनुसूचित जाति/जनजाति का दर्जा देने की मांग तेज की है, ये हमारी राजनीति की उस संकीर्ण मानसिकता का द्योतक है, जिसके तहत हमारे राजनीतिक दल अपना वोट बैंक मजबूत करने की कोशिश करते है। ये मानसिकता बताती है कि हमारे नीति निर्माता राजनीति में टिके रहने के लिए किसी भी तरह के दावे करने से नहीं चूकते है। इसके भविष्य के परिमाण चाहे जो भी हो लेकिन ये वादे और दावे करने से पीछे नहीं हटते है। कुछ इसी तरह के दावों का परिणाम है राजस्थान का ताजा घटनाक्रम। इस तरह के वादों के जीवाणु आजादी के बाद से ही भारतीय राजनीति में आ चुके थे पर ज्यादा प्रभावी नहीं थे पर अब ये हमारी भारतीय राजनीति का हिस्सा बन चुके है। राजस्थान में जो कुछ हो रहा है उसमें काफी दोष हम नागरिकों का भी है। हम इनके वादों को सही मानते है ये जानते हुए भी कि हर बार हमारे साथ यही होता है, वादों को कर के तोड़ना। हम किसी भी एक भारतीय को अपना भाई मनाने को तैयार नही रहते हैं। यदि व्यक्ति को व्यक्ति समझा जाता, तों इस तरह के आंदोलन शायद नहीं होने पाते। गुजरों को सोचना चाहिए कि इससे नुक़सान किसका हो रहा है आख़िर उनके अपने लोग ही तों मर रहे है। इस तरह का आंदोलन किसी भी मसले का हल नहीं होता है। कोई भी मसला शान्ति से बैठ कर और बातचीत करके ही सुलझाया जा सकता है। गुजरों को शान्ति से काम लेना चाहिए और शान्ति का ही रास्ता अपनाना चाहिए। ताकि उनके साथ-साथ आम नागरिकों का भी नुक़सान न हो। उन्हें भारत के नेताओं की गन्दी राजनीति को समझना चाहिए कि हमारे राजनीतिज्ञ अपनी कुर्सी बचाने के लिए किसी भी हद तक गिर सकते है।
गुरुवार, 29 मई 2008
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें