शुक्रवार, 2 मई 2008

खुशहाली पर दाग है श्रमिकों की बदहाली

सिक्के के दो पहलू की तरह ही हिंदुस्तान की तरक्की के भी दो तस्वीरें हैं। एक वह जो ऊपरी और काफी चमकीली है। इसलिहाज से देखें तो पहले के मुकाबले देश की शक्ल-व-सूरत काफी बदल चुकी है। अर्थव्यवस्था अपने पूरे शवाब पर है और कहने तो उच्च मध्यम वर्ग और मध्यम वर्ग सभी खुशहाल हैं लेकिन तरक्की की दूसरी तस्वीर भारतीय श्रमिकोंऔर किसानों की बदहाली की वजह से काफी बदनुमा है। जीतोड़ मेहनत करने के बावजूद उन्हें गुजर-बसर करने लायक पारिश्रमिक भी नहीं मिल पाता।
जब भी श्रम दिवस मनाया जाता है, सरकार द्वारा इसके हितार्थ लुभावने भाषण दिए जाते हैं, योजनाओं के संकल्प किए जाते हैं लेकिन बाद में सब भुला दिया जाता है। अगर कुछ बड़े मेट्रो शहरों की बात न करके छोटे कस्बों और गाँवदेहातों की बात करें तो वहाँ का जीवन व्यतीत कर रहे मजदूर एवं किसान महज ४०-५० रुपये ही प्रतिदिन कमा पाते हैं, वह भी १२ घंटों की मेहनत मशक्कत के बाद। उस पर तुर्रा यह की इस बात की कोई गारंटी नहीं की उन्हें रोज ही कम मिल जाए। देश की यह तस्वीर यहाँ के बाशिंदे तो देख रहे हैं लेकिन विदेशों में सिर्फ़ हमारी चमकीली अर्थव्यवस्था की का ही डंका है।
हाल ही में केन्द्र सरकार ने कहा है की उसे इस बात का भरोसा है किवह लोगों के भूख से मरने के सिलसिले को पूरी तरह रोकने में २०१० तक सफल हो जायेगी और इस लक्ष्य को हासिल करने में किसी तरह की कोताही नहीं होने देगी। सरकार का यह भी कहना है कि भूख से होने वाली मौतों की समस्या अकेले भारत में ही नहीं है। दुनिया में कई देशों में यह समस्या काफी विकराल रूप में देखी जा रही है।
भारत के उड़ीसा और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में तों भूख के मारे किसान और मजदूर दम तोड़ रहे हैं। यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। तमाम तरह के प्रयासों के बावजूद आज तक इस दिशा में कोई ठोस नतीजा सामने नहीं आ सका है। इसके अलावा बिहार, झारखण्ड, तमिलनाडु एवं अन्य छोटे प्रांतों के कुछ छोटे-बड़े क्षेत्र इस समस्या से प्रभावित होते रहे हैं। यह वह इलाका है जहाँ समाज के पिछड़ेपन का शिकार लोगों का भूख से मौत का मुख्य कारण गरीबी है। इसके विपरीत देश के कई प्रांतों में लोग भूख के बजाय कर्ज और उसकी अदायगी के भय से आत्महत्या कर रहे हैं। यहाँ गौर करने वाली बात यह है कि गरीबी के कारण भूख से मरने वाले आमतौर पर गरीब किसान और आदिवासी हैं। भुखमरी के लिहाज से अगर आंकडे देखे जायें तो इसकी शिकार अधिकतर ग्रामीण आबादी है। कुपोषण और भुखमरी में फर्क वस्तुतः नाममात्र का है और यही शहरी और ग्रामीण आबादी का अहम् अन्तर भी है। ऐसा नहीं है कि शहरों में गरीबी नहीं है या वहाँ भूख से मौतें नहीं होती हैं, पर वहाँ यह स्थिति अपेक्षाकृत कम है। न केवल भारत बल्कि दुनिया भर के लिए यह बहुत बड़ी विडम्बना है कि भूख से मौतें वहीं होती हैं जहाँ दुनिया कि भूख मिटाने का इंतजाम होता है। उड़ीसा में किसान और आदिवासी गरीबी के चलते भूख से मरने के लिए मजबूर होते हैं तो पंजाब के किसान कर्ज के बोझ में दबकर आत्महत्या को विवश होते हैं। देश के सबसे विकसित राज्यों में गिने जाने के बावजूद पंजाब के सीमावर्ती क्षेत्र के किसानों को शुद्ध पेयजल भी नसीब नहीं होता है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इस सम्बन्ध में देश कि सभी राज्य एवं संघ सरकारों को स्पष्ट निर्देश दिया था कि वे भूख से मरने वाले मजदूरों कि मौतों को रोकने के लिए प्रभावी कदम उठाएं। सरकारों ने इस दिशा में प्रयत्न भी किए, इसके बावजूद इन प्रयासों के जैसे परिणाम दिखाने चाहिए, वे भी अभी तक नहीं दिखे।
देश में वस्तुतः संसाधनों कि कमी नहीं है मगर इसका कुप्रबंधन ही समस्या का बुनयादी कारण है। इसी कुप्रबंधन का नतीजा है कि हमारे देश कि ग्रामीण आबादी लगातार शहरों की ओर भागने को विवश हो रही हैं। गावों से शहरों की ओर पलायन कर रही आबादी पर अगर नजर डालें तो यह स्पष्ट होता है कि इनमें गरीब नौजवानों से लेकर संपन्न किसान और पढ़े-लिखे प्रोफेशनल तक शामिल हैं। यह तथ्य यह बताने के लिए काफी हैं कि जनसंख्या के इस तरह बड़े पैमाने पर हस्तांतरण का कारण केवल गरीबी और बेरोजगारी नहीं बल्कि विकास का असंतुलन है। कतार में खड़े अन्तिम आदमी की बात तो हर नेता करता है लेकिन उसकी बात केवल भाषण तक ही सीमित रह जाती है। शायद यही कारण है कि गांवों में स्कूल तों हैं लेकिन तालीम नदारद है, अस्पताल तों हैं लेकिन डॉक्टर और दवाइयाँ नहीं हैं। दूरवर्ती गांवों तक पहुचाने को सड़कें नहीं हैं। प्रशासन है लेकिन अराजक तत्वों का उस पर इतना दबदबा है कि प्रशासन उनके आगे लुन्जपुन्ज हो जाता है। ग्रामीण विकास का यह परिदृश्य समस्या कि जटिलता को स्पष्ट करने के लिए काफी है।

-रमेश ठाकुर (साभार- राष्ट्रीय सहारा)

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