शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2009

जैसे तुम सोच रहे साथी, वैसे आजाद नहीं हैं हम

इधर तो काफी दिन हो गये कुछ लिखा नहीं मैंने. इस कारण से एक अच्छी रचना प्रस्तुत कर रहा हूँ. यह रचना विनोद श्रीवास्तव की है, इन्हें मैं नहीं जनता हूँ. लेकिन इनकी कविता के माध्यम से इन्हें जान गया हूँ. ये कविता मेरे दोस्त मनोज ने (भोपाल से) मुझे भेजी है. उम्मीद है आपको पसंद आएगी..
जैसे तुम सोच रहे साथी,
वैसे आजाद नहीं हैं हम,
जैसे तुम सोच रहे साथी,
वैसे आजाद नहीं हैं हम।
पिंजरे जैसी इस दुनिया में,
पंछी जैसा ही रहना है,
भर पेट मिले दाना-पानी,
लेकिन मन ही मन दहना है,
जैसे तुम सोच रहे साथी,
वैसे संवाद नहीं हैं हम,
जैसे तुम सोच रहे साथी,
वैसे आजाद नहीं हैं हम।
आगे बढ़नें की कोशिश में,
रिश्ते-नाते सब छूट गये,
तन को जितना गढ़ना चाहा,
मन से उतना ही टूट गये,
जैसे तुम सोच रहे साथी,
वैसे आबाद नहीं हैं हम,
जैसे तुम सोच रहे साथी,
वैसे आजाद नहीं हैं हम।
पलकों ने लौटाये सपने,
आंखे बोली अब मत आना,
आना ही तो सच में आना,
आकर फिर लौट नहीं जाना,
जितना तुम सोच रहे साथी,
उतना बरबाद नहीं हैं हम,
जैसे तुम सोच रहे साथी,
वैसे आजाद नहीं हैं हम।
आओ भी साथ चलें हम-तुम,
मिल-जुल कर ढूंढें राह नई,
संघर्ष भरा पथ है तो क्या,
है संग हमारे चाह नई
तुम सोच रहे साथी,
वैसी फरियाद नहीं हैं हम,
जैसे तुम सोच रहे साथी,
वैसे आजाद नहीं हैं हम।
कैसी लगी? उम्मीद है कि पसंद आई होगी. तो फिर मिलते हैं.

3 टिप्‍पणियां:

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बढ़िया रचना प्रेषित की है।आभार।

Unknown ने कहा…

अच्‍छी रचना है भूमिका बा‍कई काबिले तारीफ है।

धीरज राय ने कहा…

bahut dino baad blog khola tha. apna aur tumhara wala bhi...mkavita padh kar maja aa gaya..........welldone