मैंने सोचा की जब मामला थोड़ा शांत हो जाए तब मैं कुछ लिखूं। इसके साथ ही मैंने नपुंषक शब्द का प्रयोग किया है। इस शब्द का प्रयोग मैं नहीं करना चाहता था, पर मुझे करना पड़ रहा है, क्योंकि मैं मजबूर हूँ। ये शब्द मेरे ब्लॉग के सेहत के हिसाब से ठीक नहीं है। फ़िर भी मैं इस शब्द का प्रयोग कर रहा हूँ। इससे अच्छे शब्द का प्रयोग करता तों शायद मेरे ब्लॉग की गिनती भड़ास सरीखे ब्लॉग की श्रेणी में हो जाएगी। खैर जो कुछ भी हुआ वो किसी भी तरह से ठीक नहीं हुआ। ये सब सारा का सारा किया धरा सरकार का ही है। वो अगर जरा भी आतंकवाद को मिटाने के लिए तत्परता दिखाती तों आज ये दिन देखने को नहीं मिलता। हम हर मामले में अमेरिका से तुलना करते है न। उसी तरह से इस घटना की तुलना भी अमेरिका से होनी चाहिए। निश्चित रूप से इस घटना ने अमेरिका में हुए 9/11 की याद जेहन में ताज़ा कर दिया। अमेरिका तों उसके बाद अपनी सरहदों के साथ देश की सुरक्षा के तों पुख्ता इन्तेजामात कर लिए पर हम अभी भी वही के वही है जैसे की आतंकवाद अभी भी हमारे लिए नया मुद्दा है। हमारे राजनेता बस अपने बयान देकर फुर्सत पा लेते हैं। राजनेता जो बयानबाजी एक-दूसरे के ऊपर करते है। इससे आतंकवाद के मुद्दे को लेकर वो कितना चिंतित है, इस बात का आसानी से पता चल जाता है। बार-बार एक ही बयान दिया जाता है कि आतंकवाद से सख्ती से निपटा जाएगा और कुछ लोग तों ये कहने से भी नहीं चूकते है कि इस तरह कि घटनाएँ होती रहती है। यही नहीं अभी एक मंत्री जी ने महिलाओं के बारे में बयान दिया कि ये लिपस्टिक लगाकर मोमबत्ती जलाकर श्रद्धांजलि दे रही है। इस बयान का इस घटना से कहीं कोई संबंध नहीं है। इसका जवाब भी उनसे बात कर रहे एनडीटीवी के पत्रकार विनोद दुआ को देना पड़ा कि एक दिन इनके साथ काम करिए और इनका काम देखिये दूसरे दिन से आप भी लिपस्टिक लगाने लगेंगे। इससे ज्यादा शर्म कि बात शायद कुछ हो ही नहीं सकती है। आज़ादी के बाद इस तरह की राजनीति से दो चार होना पड़ेगा इससे बेहतर तों गुलामी वाले ही दिन थे। कम से कम उस समय हम किसी मुद्दे को लेकर एकजुट तो थे। राजनीति की बात करें तों एक आतंकी की फांसी तय हो जाने के बावजूद उस पर अभी भी केवल राजनीति कर मामले को अब तक जबरदस्ती बढ़ाकर इतना लंबा किया गया है। जनता को अब एकजुट हो सरकार को जवाबदेही पर मजबूर करना ही होगा।
पुलिस
लगातार होती आतंकवादी घटनाओं से एक बात साबित हो चुकी है कि हमारी कानून व्यवस्था और जाँच एजेंसियों कि कार्यप्रणाली में अब जंग लग गया है। पुलिस सुधार की बात करें तों केन्द्र सरकार ने लागू कर दिया है पर राज्य सरकारें नहीं चाहती कि पुलिस सुधरे और जनता के बहते खून को रोका जाय। जाँच एजेंसियों में किसी भी तरह के आपसी तालमेल का अभाव है और उनकी कार्यप्रणाली में राजनीति हावी है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। पुलिस का काम भी जनता कि तरह काम को टालने का है। पुलिस अभी भी उस छवि को विकसित नहीं कर पाई है, जिससे कोई भी व्यक्ति किसी संदिग्ध के दिखाई देने पर उसकी सूचना पुलिस को दे सके। गुत्थियों को सुलझाते-सुलझाते हमारी पुलिस ख़ुद ही उलझ जाती है। ऐसे कई सारे मामले है जो अपने परिणाम को पाने के लिए तरस रहे है। ये पुलिसकर्मी, जो शहीद हुए है, इन्हे भी बचाया जा सकता था। मुंबई घटना के बाद एक बात समझ में आ गयी है कि कोई भी सुरक्षा दस्ता चाहे वह एटीएस हो या फ़िर नेशनल सिक्यूरिटी गॉर्ड सभी ख़ुद को मीडिया के द्वारा दिखाना चाहते है। नेशनल सिक्यूरिटी गॉर्ड के प्रमुख अपने जवानों के दल के साथ मीडिया को बाइट देने में मशगूल थे, जबकि अभी ताज में आतंकी गोलाबारी कर रहे थे। उनका बाइट देना ज्यादा जरुरी था या फ़िर देश को बचना? इसी तरह एटीएस प्रमुख भी पहले मीडिया को बाइट देकर वहां पहुचे और कथित रूप से वीरगति को प्राप्त हुए। क्या ये सब करना जरुरी होता है?
मीडिया
मीडिया की भूमिका भी सराहनीय नहीं कही जा सकती है। एक सवाल है कि क्या मीडिया को राष्ट्र कि सुरक्षा से संबंधित खबरें दिखाना या बताना जरुरी है? ये सब देश कि सुरक्षा से बढ़कर है? अभी जाँच से पता भी चला है कि ताज में घुसा एक आतंकी निरंतर टीवी पर सेना की कार्यप्रणाली पर नजर रखे हुए था। यही नहीं घटना से संबंधित जो दर्दनाक दृश्य दिखाए जाते है वो दिखाना जरुरी है? क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के आगे राष्ट्र सुरक्षा को तवज्जो नहीं दिया जाएगा? भोपाल के एक अख़बार नवदुनिया की बात करे तों जहाँ सारे देश की मीडिया केवल मुंबई की ख़बर दिखा रही थी, वही ये इससे पैसा कमाने की योजना ही बना ली थी। इस सम्माननीय पत्र ने उस घटना के पहले ही दिन एक आठ पेज का विशेष अख़बार इस घटना को आधार बनाकर एक रुपये में बेच रहे थे। इससे शर्मनाक और क्या हो सकता है। यही नहीं कुछ पत्रिकाओं जैसे इंडिया टुडे, आउटलुक और द वीक ने तों इस बार के मुंबई विशेषांक के दाम भी बढ़ा दिए है।
अवाम/जनता
जनता भी कम दोषी नहीं है। पहली बात कही भी कोई आतंकी घटना होती है तों कुछ लोग वहां पिकनिक मनाने पहुच जाते है। उन्हें किसी बात से कोई सरोकार नहीं होता है। कैमरे में एक बार दिख जाना और फ़िर धीरे-धीरे मुस्कुराना। कुल मिलाकर बेवजह भीड़ का जमा हो जाना कहा तक उचित है। इनका यहाँ कोई काम नहीं होता है। उल्टा ये भीड़ बढाकर काम को और मुश्किल ही करते है। दूसरी बात अब इस घटना के बाद जगह-जगह प्रदर्शन हो रहे है और श्रद्धांजली मोमबत्ती जलाकर दी जा रही है। इसका मतलब जनता अब जाग रही है? जनता का यह जागना भी एक सवाल खड़ा करता है कि क्या इससे कम कीमत पर जनता नहीं जागेगी? अर्थात क्या जब इस तरह की घटना होगी तभी जनता जागेगी। आतंकी घटना का शिकार हुए लोग मुआवजा लेने से मना करें। साथ ही किसी राजनेता के आने पर पीड़ित इनके आने का बहिष्कार करें. पीड़ित व्यक्तियों का अस्पतालों में मुफ्त इलाज हो. अब सभी को एकजुट होने कि जरुरत आन पड़ी है. समय आ गया है की अब सभी जाग जाए वरना इस देश को कोई बचा नहीं बचा सकेगा, किसी धर्म का भगवान भी नहीं।
7 टिप्पणियां:
आपने सही लिखा है|पर सरकार के साथ ही साथ जिस जनता ने इसे चुना दोनों जिम्मेदार है|आज देश को जन-जागृति और जन-क्रांति की जरुरत है|
Sach kaha aapne.
ठीक ही कहा -सरकार किसी भी समस्या से निपटने में अक्षम है, नपुंसक कहकर भी उन पर कुछ रहम ही कर रहे हो.
आपने इस मुद्दे के हर एक पक्ष को उजागर किया है. यह बहुत ही प्रसंशनीय प्रयास है. भारत के लिए आतंकवाद को रोकना आसन बात नही है, क्यूंकि यहाँ की सुरक्षा व्यवस्था अन्य देशों के मुकाबले काफी पिछडी हुई है. तकनीक के प्रयोग में यदि देखा जाए तो अब आतंकवादी इसका बखूबी इस्तेमाल कर रहे हैं. पहले तो आतंकवादी ईमेल और वायरलेस का ही इस्तेमाल किया करते थे. लेकिन अब वह भी जीपीएस तथा सॅटॅलाइट फ़ोन जैसी तकनीको का उपयोग धड़ल्ले से कर रहे हैं. और हमारी सरकार तकनिकी के प्रयोग में लापरवाही बरत रही है. अहमदाबाद में हुए बम धमाकों के बाद ही सरकार ने मुंबई के पाँच प्रमुख स्थानों पर निगरानी उपकरण लगाने के प्रस्ताव को अब तक मंजूरी नही मिल पाई है. अब वक्त आ गया है जब सरकार को अपनी तुच्छ बयानबाजी को बंद करते हुए कड़ी सुरक्षा व्यवस्था की और धयान केंद्रित करना चाहिए.
भारत के इतिहास में मुंबई जैसी आतंकी घटना पहली बार हुई है, जिसने पुरे देश के हर नागरिक को झकझोर कर रख दिया है. उन जांबाज शहीदों तथा विस्फोट में मारे गए लोगो की आत्मा की शान्ति के लिए जितना कुछ किया जाए वह कम है . हम सब उनको नमन करते है .
आपने सभी पहलुओ को छू कर एक सारगर्भित लेख लिखा है इसके लिए धन्यवाद...
सरकार पुलिस मीडिया की तो धज्जिया उड़ा दी लेकिन इस जनता को क्यों दोस दे रहे हैं? वो तो अंधे हैं और उनकी छड़ी आपके हांथों में है.....
लेकिन हाँ गजब लिखा है.
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