आज मेरे पास फ़िर वही पुराना बहाना है कि वक्त न मिलने के शिक्षक दिवस पर कुछ लिख नहीं पाया। क्या करूँ अभी पढ़ रहा हूँ न, इस वजह से समय नहीं मिल पता है और कल शिक्षक दिवस होने के कारण विवि में कार्यक्रम आयोजित किया गया था। संयोग से आयोजन समिति में शामिल होने का सौभाग्य मुझे और मेरे कुछ मित्रों को मिला था, कार्यक्रम को सुचारू रूप से संपन्न कराने के लिए। भगवान की दया से सब ठीक-ठाक से हो गया। एक बात और सेटिंग में कुछ गड़बड़ी होने के कारण अभी मेरे ब्लॉग में ५ सितम्बर ही बता रहा है। अतः लगता है कि मैं समय पर हूँ। खैर सभी विद्यार्थियों और बाद में शिक्षकों ने अपने-अपने वक्तव्य दिए। मैं ज्यादा नहीं लिखूंगा बस अपने विभागाध्यक्ष की एक बात याद है कि शिष्यों की सफलता में ही गुरु की सफलता होती है। अब एक कविता है जो लिख रहा हूँ, जिसे विजयदेव नारायण राही ने लिखा है। कविता की पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-
परम गुरु
दो तों ऐसी विनम्रता दो
कि अंतहीन सहानुभूति की वाणी बोल सकूँ
और यह अंतहीन सहानुभूति
पाखंड न लगे।
दो तों ऐसा कलेजा दो
कि अपमान, महत्वाकांछा और भूख
की गांठों में मरोड़े हुए
उन लोगों का माथा सहला सकूँ
और इसका डर न लगे
कि कोई हाथ ही खा जाएगा।
दो तों ऐसी निरीहता दो
कि इस दहाड़ते आतंक के बीच
फटकारकर सच बोल सकूँ
और इसकी चिंता न हो
कि इस बहुमुखी युद्ध में
मेरे सच का इस्तेमाल
कौन अपने पक्ष में करेगा।
यह भी न दो
तों इतना ही दो
कि बिना मरे चुप रह सकूँ।
अंत में दो पंक्तियाँ और देना चाहता हूँ, मेरे डिपार्टमेन्ट के दीपक राय ने लिखा है-
मुझे पता नहीं गुरु शब्द कहाँ से शुरू होता है।
जिससे मैं कुछ सीखता हूँ, वही मेरा गुरु होता है॥
2 टिप्पणियां:
एक दिन देर से ही सही , पर बहुत ही अच्छा पोस्ट लिखा है।
अच्छा आलेख और आभार इस कविता को पढ़वाने का.
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