भोपाल: यह एक विचारणीय प्रश्न है कि आग से जलकर मरने वालों में अधिकतर संख्या महिलाओं की ही क्यों होतीं है? क्या उसे महिला और पुरूष का भेद समझ में आता है? वह इतनी समझदार कब से हो गयी कि उससे जलकर मरने वालों में महिलाओं की संख्या ही ज्यादा होती है? ये कई सारे सवाल हमारे समाज में उपस्थित रहते है जो ऐसे किसी मामले के उजागर होने पर समाज के लोगों द्वारा उठाये जाते है और मामले के ठंडा होने के साथ ही ये प्रश्न फ़िर समाज के जेहन की अँधेरी गलियों में कही खो जाते है। महिलाओं के साथ इस तरह की ज्याजतियाँ आए दिन होती ही रहती है। अनेक मामले तों ऐसे होते है जो उजागर ही नहीं होने पाते है। कुछ मामलों को आपसी सहमति के द्वारा रफा-दफा कर दिया जाता है। राजस्थान पत्रिका में विगत दिनों आई स्नेहा खरे की रिपोर्ट वाकई द्रवित करने वाली थी। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि केवल राजधानी भोपाल में महिलाओं के जलने कि दर ७० फीसदी प्रति माह है। जब राजधानी का यह हल है तों बाकि राज्य और देश के अन्य इलाकों में क्या होता होगा इसकी कल्पना रोंगटें खड़ी कर देने वाली है। जलने के ज्यादातर मामले दहेज़ उत्पीड़न के कारण होते है। महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों से संबंधित कई सारे कानून हमारे संविधान में लिखे गये है पर ये कानून वास्तव में किसी अपराधी को सजा दिला पाए ऐसा काम ही होता है।
सोमवार, 30 जून 2008
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4 टिप्पणियां:
sahii keh rahey haen aap
नाटक भी तो यही करती हे??? आंखो देखी बात हे शरीफ़ सास ससुर कॊ डरने का नकाम तरीका अपने उपर मिट्टी या पेट्रोल डाल लो फ़िर मचिस की तीली लेकर ड्रामा करो. यह आज भारत के घर घर की कहानी हे,
दहेज़ विरोधी और महिलाओं के लिए बने कानूनों का अक्सर ग़लत फायदा है उठाया जाता है, जिन्हें सच मैं ज़रूरत होती है उन्हें तो लाभ मिल नहीं पाता. अगर ये दिखावे के कानून सचमैं मददगार होते तो महिलाओं के झुलसने की दर सत्तर फीसदी न होती.
auraton men apni aahuti dekar kalyan karne ki kshamata hoti hai jisase sristi aage badhti rahti hai.
lekin aaj usake saare gun usake liye hiawagun/abhishap ban gaye hain.
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