कल २ अक्टूबर यानी की गाँधी जयंती थी। गाँधीजी जिनके अथक प्रयासों की वजह से हमें आजादी मिली। आप सोच रहे होंगे की मैं भगत सिंह और गांधीजी को एक साथ क्यों याद कर रहा हूँ। चलिए इसका कारण बता देता हूँ। आजादी की लड़ाई में ये दो ध्रुवों के नेता माने जाते है। एक गरम दल का नेता था, तों दूसरे की पहचान नरम दल से होती है। एक बात और जहाँ भगत सिंह का जन्मदिन २८ सितम्बर को पड़ता है, तों गांधीजी का केवल पांच दिन बाद २ अक्टूबर को मनाया जाता है। दोनों ने आजादी की लड़ाई अपने-अपने ढ़ंग से लड़ी। दोनों के रास्ते भले ही अलग-अलग थे, पर उनका मुकाम एक था और वह थी हमारे देश की आजादी। दोनों का सपना एक था कि समाज का सबसे पिछड़ा और आखिरी पंक्ति में खड़ा आदमी को स्वालंबी और आत्मनिर्भर बनाया जा सके। उनकी आजादी का मतलब ये नहीं था कि गोरों कि जगह काले आकर कालों पर राज करे। दोनों ने ही पूर्ण स्वराज कि मांग की थी। आज देश को आज़ाद हुए छः दशक बीत चुके है। हमने हर क्षेत्र चाहे वो सूचना प्रौद्योगिकी, व्यापार, विज्ञान, (साथ ही आतंकवाद, नक्सलवाद, जातिवाद, उग्रवाद, साम्प्रदायिकता में भी) में खूब तरक्की की, पर आज भी हम गाँधी या भगत सिंह के देखे गये सपने से कोसों दूर है। अमीर और गरीबों के बीच की खाई पटने का नाम ही नहीं ले रही है। गरीब और गरीब और अमीर और अमीर होते जा रहे है। यह भारत के विकास की एक स्याह सच्चाई पेश कर रहा है। हमने भगत सिंह और गाँधी जयंती के दिन केवल उनको याद कर और उनके नाम से सड़कों और भवनों का नाम रख कर अपना कर्तव्य पूरा हो गया ऐसा मान लेते है। क्या इन दो महापुरुषों ने यही दिन देखने के लिए भारत को आज़ाद कराया था। जिसमें चारों तरफ़ तरक्की का शोर तों सुनाई दे रहा है, पर इस शोर में ही उन गरीब और असहाय लोगों की चित्कार भी शामिल है, जो रोजाना आतंकवाद और धर्म के नाम पर मरे जा रहे है। इस भारी शोर में इनकी आवाज़ सुनने वाला कोई भी नहीं है। गाँधीजी और भगत सिंह आज अच्छा है की जीवित नहीं है, वरना ये देखकर यही सोचकर घुट-घुट कर मरते कि हमने ये किनके लिए इतना बड़ा संघर्ष किया और इतने लोगों की कुर्बानी दी?
गुरुवार, 2 अक्तूबर 2008
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