आज करीब एक महीने बाद अपने ब्लॉग पर कुछ लिखने जा रहा हूँ। घर से २-३ दिन ही हुए है आए हाथ में खुजली हो रही थी कि कुछ लिखूं सो आज लिख रहा हूँ। आज बात स्वतंत्रता की करूंगा, क्योंकि अभी हाल ही में हमने अपनी स्वतंत्रता के ६१ साल पूरे किए है। अपनी बात शुरू करता हूँ। ज्यादा भूमिका नहीं बाधूंगा। कम शब्दों में अपनी बात कहने की कोशिश करूँगा। तों साहब शुरू करता हूँ। आजादी मिलने के छ: दशकों में हमारे देश ने दिन दूनी और रात चौगुनी तरक्की की है। इस बात से निश्चित रूप से इंकार नहीं किया जा सकता है। हमें इसका गर्व भी है। आज विश्व के सभी देश हमारा लोहा मानते है। हर क्षेत्र में हमने तरक्की की है। चाहे वो सूचना प्रौद्योगिकी का क्षेत्र हो, विज्ञान का क्षेत्र हो, शिक्षा का क्षेत्र हो, मीडिया का क्षेत्र हो। सभी क्षेत्रों में हम प्रगति के पंख लगाकर विकास की नित नई ऊँचाईयों को छू रहे है। इतना ही नहीं बहुत जल्द हम विकसित देशों की कतार में भी खड़े होने वालें है। इतना सब होने के बावजूद एक कमी खलती है कि आजादी के इतने सालों बाद भी हम अपने देश को पूरी तरह से साफ-सुथरा रखने में असफल साबित हुए है। हम आज भी अपने अन्दर इतनी जागरूकता नहीं ला पाए है, जो हमें देश को स्वच्छ बनाये रखने के लिए प्रेरित कर सके। अभी भी हमारे देश के हर छोटे-बड़े शहर गन्दगी का अंबार बने हुए हैं। स्कूल-कॉलेज, रेलवे और बस स्टेशन (ट्रेन और बसें भी), यहाँ तक कि हमारी ऐतिहासिक इमारतें और लगभग सभी सार्वजनिक जगह गन्दगी की चपेट में है। हम कहीं भी पान खाकर थूंक देते है। पान और सिगरेट के पैकेट फेंक देते है। प्रसिद्ध इमारतों की दीवारों पर अपना नाम लिखना और इजहार-ऐ-मोहब्बत करने से नहीं चुकाते है। आख़िर इस तरह की मानसिकता से कब हम ख़ुद को मुक्त करेंगे। शहर का नगर निगम अपील करता रहता है "स्वच्छ शहर हरित शहर" पर हम केवल इस स्लोगन को पढ़कर आगे बढ़ जाते हैं। क्या स्वतंत्रता का मतलब ये होता है कि हम जगह-जगह अपनी असभ्यता का परिचय देते फिरें। देश में हर साल करोड़ों पर्यटक घूमने के लिए आते है। उनके दिमाग में हमारी कैसी छवि बनती होगी। माननीय स्वास्थ्य मंत्री ने फिल्मों में पान और सिगरेट के दृश्य दिखाए जाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया है, पर इन्हे बनाने वालों और खाने वालों पर कोई भी अंकुश लगाने का प्रयास भी नहीं करते हैं। करें भी क्यों सरकार को तों इसे बनाने वालों से तगड़ा राजस्व जो मिलता है। कमी हमारी ही है। हम अपने घर के अलावा सारी दुनिया को कुडेदान जो समझते है। अगर हम अपने घर की तरह देश को भी घर समझते तों भारत न केवल साफ-सुथरा होता बल्कि हम भी स्वस्थ व निरोगी रहते। आज जरुरत है इस मानसिकता को बदलने की तभी हमारा देश वास्तविक अर्थों में महान बन पायेगा.
बुधवार, 20 अगस्त 2008
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5 टिप्पणियां:
सही कह रहे हैं..
मैं कुछ ऐसे भारतीयों को जानता हूँ जो भारत में रहते हुए हर जगह कूड़ा फेंकते थे. लेकिन विदेश में आकर वे इतने स्वच्छ हो गए हैं कि क्या कहने! सिर्फ़ हिंदुस्तान ही कूड़ाघर था, विदेश नहीं! मैं समझता हूँ कि भारतीय लोग मूलतः स्वच्छ रहना चाहते हैं, लेकिन भारत में पहले से पड़ी गंदगी देखकर बहती गंगा में हाथ धो लेते हैं.
बात व्यवस्था बनाये रखने की है.......मैं अनिल जी के बात से पूरी तरह सहमत हूँ, जो लोग भारत में गन्दगी फैलाते थे, वो लोग विदेशो में सफाई का सम्मान करते है......
सोचने वाली बात है ऐसा क्यों होता है? ऐसा इसलिए होता है, की हम अपने आस पास के वातावरण को देख कर प्रेरित होते है. मैं एक बार हरियाणा राज्य के गुडगाव इलाके में गया था किसी काम से. वहां के corporate buildings न केवल दिखने में सुंदर है, बल्कि उतने ही साफ सुथरे जिंतने की America में......यहाँ भी भारतीय ही थे, जो की भारत में रहकर ही इतनी साफ सफाई बारात रहे थे..........क्यों? सीधी बात है, एक साफ सुथरी सुंदर चीज़ को गन्दा करने में अन्दर से ही झिझक होती है......लोग एक चमकती Hotel की lobby में एक सिगरेट के पैकेट को फेंकने का साहस नही जुटा पाते, परन्तु जहाँ सड़क के बगल में कचरे का ढेर दिखा, तो अपना भी हाथ साफ़ कर लिया.
तो गड़बड़ भारतियों के अनुवांशिकी में नही है, गड़बड़ व्यवस्था में है........अगर आस पास की जगहें साफ़ सुथरी हो, थोड़े कड़े कानून हो, कचरा फेंकने की पर्याप्त व सरल व्यवस्था हो, कचरा नियमित रूप से साफ़ होता हो, तो पूरा भारत गुडगाँव की तरह साफ सुथरा क्यों नही बन सकता??
aapka ye chota pryas bahut hi bda hai.
i must say u'hv done gud job.... keep it up.....
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