आखिर सरकार को पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस के दामों को बढ़ने के लिए विवश होना ही पड़ा। अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में कच्चे तेल की बढ़ती कीमत और भारत की निजी तेल कंपनियों के बढ़ते घाटे की वजह से सरकार यह कदम उठाना पड़ा। इसके सिवा उसके पास कोई चारा भी नहीं था। अब क्या करे सरकार भी वो भी तों मजबूर है। वो तों केवल विभिन्न रिपोर्टों से आए आंकडों पर ही निर्भर है। उसे तों केवल ये पता है कि भारतीयों की सालाना आय ३०,००० के पार पहुच चुकी है। बस फ़िर क्या था तेल के दाम बढ़ने ही थे। उसे ये नहीं मालूम की देश में करोड़ों लोग अभी भी ऐसे है जिन्हें दो वक्त की रोटी के लिए रोजाना जद्दोजहद करनी पड़ती है। हमारे देश में कभी भी इस तरह की स्थितियों से निपटने के कोई भी दूरगामी प्रयास करने से बचा जाता है। बचने की इस प्रक्रिया से जानबूझ कर स्वयं को मजबूर दिखाया जाता है कि साहब अब तों हम मजबूर है, अब कुछ नहीं कर सकते है अब तों तेल के दम बढ़ाने ही पड़ेंगे। आम आदमी जिसके सामने रोज कुआँ खोद कर पानी पीने की मज़बूरी हो वो मरे तों मरे। सरकार का इससे क्या वास्ता है। दूसरी तरफ़ मुद्रा स्फीति की दर भी नित नए कीर्तिमान बना रही है। सरकार ने अगर इन स्थितियों से निपटने के लिए जरुरी प्रयास नहीं किए तों बहुत जल्द भारत की भी हालत अफ्रीकी देशो की तरह होने से कोई रोक नहीं सकता।
गुरुवार, 5 जून 2008
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3 टिप्पणियां:
अच्छा अच्छा सोचो भाई । यहॉं अफ्रीका बनाने पे क्यों तुले हो । बनाना है तो अफगानिस्तान बनाओ
आपकी चिंताएँ हम सब की भी चिंताएँ है.
मैं आपसे सहमत हूँ. जल्द ही रास्ता खोजना होगा.
स्थितियाँ आपे के बाहर होती जा रहीं हैं, चिन्ता का विषय है.
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